Uniform Civil Code Honoring the Constitution: विश्व पटल पर भारत एक अनोखा राष्ट्र है, जो विविध भाषा, संस्कृति, धर्म के तानो-बानो, अहिंसा और न्याय के सिद्धांतों पर आधारित स्वतंत्रता संग्राम तथा सांस्कृतिक विकास के समृद्ध इतिहास द्वारा एकता के सूत्र में बंधा हुआ हैं। एक साझा इतिहास के बीच आपसी समझ की भावना ने विविधता में एक विशेष एकता को सक्षम किया है, जो ‘राष्ट्रवाद’ की एक लौ के रूप में सामने आती है जिसे अत्यधिक पोषित और अभिलषित करने की आवश्यकता है।
भारत समानता, न्याय और सहिष्णुता की मातृभूमि है। भारतीय संविधान में 42वें संशोधन के माध्यम से ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द को प्रविष्ट किया गया था। इससे यह स्पष्ट होता है कि संविधान का उद्देश्य भारत के समस्त नागरिकों के साथ धार्मिक आधार पर किसी भी भेदभाव को समाप्त करना है। संविधान के अंतर्गत ही भाग-IV में “समान नागरिक संहिता” अनुच्छेद-44 के माधयम से राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों में वर्णित है। इसमें कहा गया है कि “राज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा”। यहाँ यह ध्यान देना दिलचस्प है कि इसी संविधान के अनुच्छेद-37 में यह परिभाषित है कि राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व सम्बन्धी प्रावधानों को किसी भी न्यायालय द्वारा प्रवर्तित नहीं किया जा सकता है लेकिन इसमें निहित सिद्धांत शासन व्यवस्था में मौलिक प्रकृति के होंगे।
‘समान नागरिक संहिता’ देश के प्रत्येक नागरिक के लिए एक समान कानून प्रदान करती है, चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या समुदाय से क्यों न हो। वर्तमान में मुसलमानों, ईसाइयों और पारसीयों के लिए अपने अलग-अलग व्यक्तिगत नियम हैं जबकि हिंदू दीवानी कानून के तहत हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध आते हैं।
सिद्धांत के रूप में ‘समानता’ भारतीय लोकतंत्र के केंद्र में है। भारत में सामयिक प्रचलित व्यवस्था के विपरीत, ‘समान नागरिक संहिता’ इस विचार पर आधारित है कि सभ्य समाज में धर्म और व्यक्तिगत कानून के बीच कोई संबंध नहीं होता है तथा इसमें विवाह-तलाक, पालन-पोषण, बच्चों को गोद लेने, संरक्षकता-विरासत, और संपत्ति के उत्तराधिकार जैसे सभी विषयों को धर्मों-जातियों-समुदायों के लिए समान रूप से लागू किया जाता है। वर्तमान में समान नागरिक संहिता वाले “गोवा” राज्य के अलावा भारत मे अधिकांश दीवानी व फौजदारी कानून जैसे भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872; साक्ष्य अधिनियम, 1872; संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882; नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1908; माल-विक्रय अधिनियम, 1930; भागीदारी अधिनियम, 1932; दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 आदि अनेक प्रकार के कानून सम्पूर्ण भारतवर्ष में एकरूपता से लागू हैं।
समानता बंधुत्व सिखाती है। नागरिक कानूनों में भी समरूपता लाने के लिये समय-समय पर न्यायपालिका ने अपने निर्णयों में पुरज़ोर आवाज उठाई है कि सरकार को समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने की दिशा में ठोस प्रयास इमानदारी से करना चाहिये। इसी संदर्भ में 1985 का “शाह बानो” मामले में दिया गया निर्णय सर्वविदित है, तथा 1995 का “सरला मुद्गल” वाद व 2017 का “शायरा बानो” मामले भी इस संबंध में काफी चर्चित है।
प्रश्न उठता है कि जिस देश मे सदियों से “अनेकता में एकता” के नारे लगते आ रहे हो तो फिर व्यक्तिगत कानूनों में एकरुपता से आपत्ति क्यों? धर्मनिरपेक्ष-गणराज्य में धार्मिक प्रथाओं के आधार पर विभेदित नियम क्यों? एक संविधान वाले इस देश में लोगों के निजी मामलों में भी एक कानून क्यों नहीं है? क्या धार्मिक प्रथाओं का संवैधानिक संरक्षण मौलिक अधिकारों के अनुरूप नहीं होना चाहिए? एकरूपता से देश में राष्ट्रवादी भावना को बल देने में आपत्ति क्यों? व्यक्तिगत कानूनों में मौजूदा लैंगिक पक्षपात का पक्षधर कौन? क्या भारतवर्ष मे “एक पत्नी – एक विधान” का नारा, सपना ही बन कर रह जायेगा? इस प्रकार के धार्मिक भेदभाव को समाप्त करना और समानता को बढ़ाना एक राष्ट्रीय प्राथमिकता होनी चाहिए। आखिर जब एक है संविधान तो क्यों न हो एक विधान…? क्योंकि एक ही तो है इंसान…, क्योंकि एक ही तो है इंसान!
जहाँ एक तरफ अल्पसंख्यक समुदाय नागरिक संहिता को संविधान के अनुच्छेद-25 का हनन मानते हैं, वहीं दूसरी तरफ बहुसंखयक समान नागरिक संहिता की कमी को अनुच्छेद-14 का अपमान मानते हैं। ध्यानाकर्षण बात यह है की अनुच्छेद-25 किसी भी धर्म को मानने और प्रचार की स्वतंत्रता को संरक्षित करता है, वहीं अनुच्छेद-14 निहित समानता की अवधारणा को संरक्षित करता है। समय की नज़ाकत है कि समान नागरिक संहिता की नाजुकता केवल सांप्रदायिकता की राजनीति के संदर्भ में नहीं की जानी चाहिए। सभी व्यक्तिगत कानूनों में से प्रत्येक में पूर्वाग्रह और रुढ़िवादी पहलुओं को रेखांकित कर मौलिक अधिकारों के आधार पर उनका परीक्षण किया जाना चाहिए। धार्मिक रूढ़िवादि दृष्टिकोण के बजाए समान नागरिक संहिता को चरणबद्ध तरीके से लोकहित के रूप में स्थापित किया जाना अपेक्षित भी है और आवश्यक भी। इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि सभी व्यक्तिगत कानूनों को संहिताबद्ध किया जाना प्रयोजनीय है, और यह प्रक्रिया न्यायिक प्रणाली को अत्यधिक सरल-सहज और प्रत्यक्ष-पर्याप्त बनाने मे मील का पत्थर साबित होगी क्योंकि आज प्रतिस्पर्धा के दौर मे समानता ही सफलता व शांति का सिद्धांत है।
समानता से ही सक्षमता सम्भव है। भारत जैसे विविधतापूर्ण, वैभवशाली व विकासशील देश में जहां विभिन्न धर्मों के लोग रहते हैं, सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार होना चाहिए और धर्मनिरपेक्ष-गणराज्य की अपरिहार्यता है कि धार्मिक स्थलों/आयोजनों के सरकारी प्रायोजन/विनियमन को संविधान द्वारा ही वर्जित किया जाना चाहिए।
सेवानिवृत्त न्यायाधीश ऋतुराज अवस्थी के कुशल नेतृत्व मे बाईसवें भारतीय विधि आयोग द्वारा सार्वजनिक सूचना के माध्यम से बड़े पैमाने पर जनता और मान्यता प्राप्त धार्मिक संगठनों से विचारों को आमंत्रित करने की पहल उल्लेखनीय होने के साथ-साथ प्रशंसनीय भी है। समान नागरिक संहिता से देश में विभिन्न धर्मों के लोगों में धार्मिक मतभेदों को कम करने में मदद मिलेगी, कमजोर वर्गों को सुरक्षा मिलेगी, कानून सरल होंगे और धर्मनिरपेक्षता के आदर्श का पालन करते हुए लैंगिक न्याय सुनिश्चित होगी। परन्तु लोकतांत्रिक सरकार को जागरूक जनता, विशेषकर अल्पसंख्यकों की आशंकाओं को दूर करना होगा और उन्हें आश्वस्त करना होगा कि उनके अधिकारों का उल्लंघन किसी भी सूरत में नहीं किया जाएगा। इसी संदर्भ में लोकतंत्र में चौथे स्तंभ के दायित्व को साकारात्मक रुप से निभाते हुए प्रैस/मीडिया की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि प्रैस/मीडिया राष्ट्र का संसाधन होता है और उसकी विश्वसनीयता जनता के सरोकारों और जन विश्वास पर ही आश्रित व आधारित होती हैं। प्रैस/मीडिया को भारतीय विधि आयोग के सार्वजनिक सुचना के बारे में बड़े पैमाने पर जनता को जागरूक करना चाहिए और स्वतंत्र रूप से स्वस्थ बहस चलानी चाहिए ताकि परिपक्व लोकतंत्र मे जनभागीदारी को जनमानस के हित हेतु सुनिश्चित किया जा सके।
हर देश की एक आत्मा होती है और भारत की ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, सत्यापित व संवैधानिक आत्मा समानता ही तो है। फलतः भारत जैसे विविधतापूर्ण, विकासशील, विशालकाय देश में समान नागरिक संहिता का कार्यान्वयन ‘समय की मांग’ ही नहीं अपितु “संविधान का मान” भी है, और जो अनुच्छेद इतने वर्षों से एक मृत-पत्र बना हुआ है उसे लागू करने का अब उचित अवसर आ गया है। निःसंदेह, यह सरकार और प्रत्येक हितधारक के लिए एक चुनौतीपूर्ण कार्य होगा, परन्तु महत्वपूर्ण बात यह है कि लोगों को इसमें अपना अमूल्य योगदान देना चाहिए और इसके बारे में अपने बहुमूल्य सुझाव प्रदान कर राष्ट्रव्यापी यज्ञ में अपनी पुण्य-आहुति प्रदान करनी चाहिए ताकि संविधान मे समानता के प्रकाशठा स्थापित व सत्यापित हो।
समान नागरिक संहिता वास्तव मे एक भारत – श्रेष्ठ भारत की प्रतिध्वनि व प्रतिबंध ही तो है जिसका मूल उद्देश्य नियम संहिता को एक समान करना है ताकि समता का सबको गुमान हो, हर मजहब का मान रहे पर, पहला मजहब संविधान हो। निःसंदेह निम्नलिखित पंक्तियाँ सबकुछ बंया करती है:
“एक भारत – श्रेष्ठ भारत की एक ही प्रतिध्वनि,
एक भारत – श्रेष्ठ भारत का एक ही प्रतिबंध,
एक है संविधान, एक हो विधान,
क्योंकि एक ही तो है इंसान, क्योंकि एक ही तो है इंसान!!”
(लेखक पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ में कानून के आचार्य है।)